बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छता बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छतासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छता
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जल एवं आहारीय रेशा
(Water and Dieting Fibres)
पाठ्य सामग्री
जल (पानी )
जल को भी आहार का एक अनिवार्य तत्त्व माना जाता है। वैज्ञानिक खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि जल एक यौगिक है। इस यौगिक का वैज्ञानिक विश्लेषण सबसे पहले इंग्लैण्ड निवासी वैज्ञानिक कैवेन्डिस ने किया था। उसने सिद्ध कर दिया था कि जल हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन से मिलकर बना है और इसमें दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग ऑक्सीजन होता है। इसी कारण इसका रासायनिक सूत्र H2O होता है। शुद्ध जल स्वादहीन, रंगीहीन, गंधहीन, पूर्णरूप से स्वच्छ एवं पारदर्शी होता है। यह एक प्रकार की चमक से युक्त होता है। आहार व शुद्ध जल को ही सम्मिलित किया जाना चाहिए। अशुद्ध या दूषित जल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है।
जीवन में जल का महत्त्व
जीवनयापन के लिए ऑक्सीजन के पश्चात् जल ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक तत्त्व है। सभी प्राणियों के शरीर में जल की कुछ-न-कुछ मात्रा अवश्य होती है। मनुष्य बिना भोजन के तो कुछ दिन जीवित रह सकता है, परंतु पानी के बिना उसका कुछ घण्टे जीवित रहना भी असंभव है। पानी की अधिक कमी से व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती है।
एक वयस्क व्यक्ति के शरीर के कुल भार का 65% जल द्वारा ही निर्मित होता है।
पाचन क्रिया में जल भोज्य पदार्थों को चबाने और कोमल बनाने की प्रक्रिया में मदद करता है तथा पाचन नलिका में भोज्य पदार्थ को गतिशीलता उत्पन्न करने में योगदान देता है। पाचन के बाद पोषक तत्त्व, पूर्ण घोल या अर्द्ध-घोल के रूप में आन्त्र भित्तियों से गुजरते हैं, जिनका संवहन रक्त या लसीका द्वारा किया जाता है। कोश में जल ही एक ऐसा माध्यम होता है, जिसके द्वारा अनेक कोशिकाएँ आन्तरिक रासायनिक प्रतिक्रियाएँ सम्पादित करने में सफल हो पाती है। चयापचय के बाद रक्त, जिसमें कि लगभग 95% जल ही होता है, कोशों में से निरर्थक पदार्थों को निष्कासन हेतु या तो फेफड़ों या फिर वृक्कों तक ले जाता है।
शरीर में जल की प्राप्ति के साधन
शरीर को जल की प्राप्ति निम्नलिखित प्रमुख माध्यमों से होती है-
1. भोज्य पदार्थों में उपस्थित जल- भोज्य तत्त्वों की ऊतकों में ऑक्सीकरण की क्रिया होने से भी जल की प्राप्ति होती है; जैसे जब कोर्बोहाइड्रेटस का ऑक्सीकरण होता है, तब कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऊर्जा के साथ-साथ जल का निर्माण होता है।
2. पेयजल के रूप में—पेय पदार्थ के रूप में व्यक्ति काफी सीमा तक जल की मात्रा ग्रहण कर सकता है। यह पेयजल चाय, कॉफी, शरबत, जलजीरा, सूप आदि के रूप में लिया जाता है। दिन में कई बार पानी पीते रहने से भी शरीर में जल की पर्याप्त मात्रा पहुँच जाती है। एक व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 4 लीटर तक जल की प्राप्ति कर लेता है। प्रत्येक भोज्य पदार्थ में भी थोड़े बहुत जल की उपस्थिति होती है। वे भोज्य पदार्थ जो शुष्क भोज्य पदार्थ कहलाते हैं उनमें भी कुछ न कुछ मात्रा में जल विद्यमान रहता है। एक दिन के औसतन आहार, जिसमें दूध भी शामिल है, में लगभग एक लीटर जल होता है।
शरीर में हुई क्रियाओं के द्वारा निकले जल को चयापचयी जल कहते हैं। इसी तरह प्रोटीन व वसा के ऑक्सीकरण के द्वारा भी चयापचयी जल उत्पन्न होता है। भोज्य तत्व निम्नलिखित मात्रा में जल की उत्पत्ति करते हैं-
100 ग्राम वसा - 107.1 ग्राम जल देती है।
100 ग्राम कार्बोहाइड्रेट - 55.5 ग्राम जल देता है।
100 ग्राम प्रोटीन - 41.3 ग्राम जल देती है।
|शरीर में जल के कार्य या उपयोग
शरीर में जल के कार्यों या उपयोग का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है
1. वस्तुओं को घुलनशील बनाने में— जल एक सर्वोत्तम घोलक (solvent) है। इसमें वसा में घुलनशील पदार्थों को छोड़कर प्रायः सभी पदार्थ सरलता से घुल जाते हैं। पोषक तत्त्वों को कोशिकाओं में पहुँचाने योग्य बनाने के लिए पाचन-क्रिया की आवश्यकता होती है। पाचन क्रिया में जल अत्यन्त सहायक होता है। भोजन को चबाने तथा नरम बनाने में भी जल बहुत सहायता कता है। जल पाचक रसों को तरल रूप प्रदान करता है तथा पाचन अंगों में भोजन को गतिशीलता प्रदान करता है।
2. ताप नियन्त्रक के रूप में-जल शरीर में ताप नियन्त्रक के रूप में भी कार्य करता है। जल द्वारा ही शरीर के विभिन्न भागों में संबंध बना रहता है। जल का संवहन ( आवागमन) एक स्थान से दूसरे स्थान में होता रहता है। इस प्रकार पूरे शरीर का तापमान नियमित रहता है। किसी भी स्थिति में शरीर का तापमान बढ़ जाने अथवा ज्वर की स्थिति में " हमारी त्वचा व श्वसन संस्थान से जल पसीने या जल के रूप में उत्सर्जित होता रहता है। जब यह जल पसीना या वाष्प बनकर उड़ता है, तो वाष्प बनने के लिए जल शरीर से अतिरिक्त ताप अवशोषित कर लेता है। इस प्रकार शरीर का तापक्रम बढ़ने नहीं पाता और शरीर का ताप सामान्य बना रहता है। इसी कारणवश अत्यधिक क्रियाशील रहने पर या गर्मी के मौसम में व्यक्ति को अत्यधिक पसीना आता है, जिससे शरीर से जल की अधिक हानि होती है।
3. शरीर निर्माणक कार्यों में सहायक- जल शरीर में विभिन्न अंगों व द्रव्यों की रचना में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहयोग देता है। वस्तुतः जल शरीर की प्रत्येक कोशिका के निर्माण में सहायता करता है। ऊतकों में इसकी भिन्न-भिन्न मात्रा पायी जाती है। जो अंग अधिक क्रियाशील होते हैं या जिनमें चयापचयी क्रियाएँ तेजी से होती हैं, उनमें जल की अधिक मात्रा पायी जाती है; जैसे यकृत, मस्तिष्क आदि। दाँतों, वसायुक्त ऊतकों तथा अस्थियों जैसे अपेक्षाकृत कम सक्रिय अंगों में जल की मात्रा क्रमश 10% होती है, जबकि मांसपेशियों में जल की मात्रा 80% तक होती है।
4. शरीर के नाजुक अंगों की सुरक्षा-शरीर के विभिन्न नाजुक अंगों के लिए जल सुरक्षात्मक व्यवस्था प्रदान करता है। शरीर के नाजुक अंग एक थैली में बंद रहते हैं। इस थैली में द्रव्य भरा रहता है। यह द्रव्य बाहरी झटको और आघातों से अंगों को सुरक्षित रखता है; जैसे- हृदय, मस्तिष्क आदि के चारों ओर उपस्थित जल (द्रव्य)।
5. वर्ज्य पदार्थों का उत्सर्जन– पाचन क्रिया के दौरान शरीर में सभी भोज्य पदार्थों का अवशोषण सम्भव नहीं हो पाता, फलस्वरूप कुछ पदार्थ अवशिष्ट रूप में बच जाते हैं। ये पदार्थ शरीर व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं तथा इनका शरीर से बाहर निकाला जाना अत्यन्त आवश्यक होता है। जल शरीर में उत्पन्न हुए वर्ज्य पदार्थों को स्वयं में घोल लेता है तथा इन्हें उत्सर्जक अंगों (जैसे गुर्दों व यकृत) तक पहुँचा देता है।
शरीर में जल का संतुलन
शरीर से अधिकतर जल का निष्कासन गुर्दे तथा त्वचा के माध्यम से होता है। जल की कुछ मात्रा फेफड़ों, आन्त्र मार्ग तथा आमाशय से भी निष्कासित हो जाती है। शरीर से जल के निष्कासन की मात्रा, ग्रहण किए हुए जल की मात्रा, शारीरिक अवस्था, वातावरण का तापक्रम और शरीर की क्रियाशीलता से प्रभावित होती है। एक सामान्य प्रौढ़ व्यक्ति के गुर्दों से प्रतिदिन लगभग 2.5 लीटर जल मूत्र जल के रूप में उत्सर्जित हो जाता है। मूत्र की मात्रा शरीर से लिए गए जल की मात्रा पर भी निर्भर करती है। यदि शरीर से जल पसीने के रूप में अधिक उत्सर्जित हो रहा हो तो मूत्र की मात्रा में कमी हो जाती है।
त्वचा के माध्यम से जल का निष्कासन मुख्यतः पसीने के रूप में होता है। जल की कुछ मात्रा त्वचा द्वारा निरन्तर वाष्पीकृत होती रहती है। गर्म मौसम में अधिक शारीरिक श्रम करने वाले व्यक्ति के शरीर से पसीने और वाष्पीकरण के द्वारा निकली जल की मात्रा अधिकतम 2.5 मिली लीटर प्रति घण्टे के हिसाब से मालूम की गई है।
0.5 मिली प्रति घण्टे के हिसाब से जल की हानि त्वचा के माध्यम से सामान्य रूप से हो जाती है। यह हानि वातावरण की ताप क्रियाशीलता तथा शरीर के आकार पर निर्भर करती है।
शरीर में जल-ग्रहण और जल-हानि के प्रभाव है-
शरीर से अनावश्यक जल की मात्रा निम्नलिखित माध्यमों द्वारा निष्कासित होती रहती है
(i) फुफ्फुसों द्वारा जलवाष्प के रूप में।
(ii) वृक्कों से मूत्र के रूप में।
(iii) दुग्धपान कराने वाली महिलाओं में दुग्धस्राव के रूप में।
(iv) त्वचा से पसीने के रूप में।
(v) बड़ी आँत से मल त्याग के साथ।
शरीर को जल की प्राप्ति, पीने के पानी और भोजन के माध्यम से होती है। इसके अतिरिक्त वसा, कार्बोहाइड्रेट एवं प्रोटीन के ऊतकों में उपस्थित हाइड्रोजन के ऑक्सीकरण से भी जल का निर्माण होता है।
जल-हानि - व्यक्ति के शरीर से जल-हानि की मात्रा भी जलवायु पर निर्भर करती है। मूत्र के रूप में लगभग 1000-1500 मिली, त्वचा के द्वारा 800-5200 मिली, फुफ्फुसों के द्वारा 400 मिली और मल के द्वारा 100-200 मिली जल-हानि होती है। एक सामान्य एवं स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में जल ग्रहण और जल-हानि की मात्रा लगभग बराबर होती है।
जल की कमी के उपचार
मानव शरीर पर जल की कमी के प्रभाव का निरीक्षण करने हेतु कुछ प्रयोग किए गए। कनाडा में चूहों पर किए गए प्रयोगों से ज्ञात हुआ कि सीमित मात्रा में जल दिए जाने के कारण चूहों में अत्यधिक चिड़चिड़ापन उत्पन्न हो गया। उनकी बुद्धि में भी 50% की कमी आ गईं। उनके द्वारा ली जाने वाला जल की मात्रा में 50% की कमी किए जाने से उनकी भोजन की कुशलता में 83% की कमी देखी गई। चूहों पर किए गए प्रयोगों का मानव जीवन में भी बहुत महत्त्व है। जिन व्यक्तियों को अपर्याप्त भोजन मिलता है, यदि उन्हें सीमित मात्रा में ही जल भी दिया जाए तो पूर्ण रूप से भोजन का उपयोग नहीं हो पाता। परिणामतः पोषणहीनता में भी वृद्धि होती है इसलिए जब भोजन अपर्याप्त रूप से प्राप्त हो रहा हो, जल की अधिकाधिक मात्रा दी जानी चाहिए, ताकि अपर्याप्त भोजन का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग हो सके।
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